पुरुषों के अहंकारी जंग में सबसे अधिक महिलाएं रौंदी जाती हैं, कल की तरह आज भी युद्ध में यौन सुख के लिए तोहफे की तरह परोसी जाती हैं

एक बार फिर अफगानिस्तान में तालिबानियों का राज है। रास्ते भर चहलकदमी करती हुई अफगान की वो खूबसूरत लड़कियां अब शायद ही फिर से चहचहाती हुई दिखेंगी।

Update: 2021-08-22 10:25 GMT

फाइल फोटो

महिला-पुरूष के बराबरी की बात करने वाली इस दुनिया में सिर्फ बातों में ही बराबरी होती है। जमीनी हकीकत कुछ और है। एक बार फिर अफगानिस्तान में तालिबानियों का राज है। रास्ते भर चहलकदमी करती हुई अफगान की वो खूबसूरत लड़कियां अब शायद ही फिर से चहचहाती हुई दिखेंगी। क्योंकि अफगान में फिर वही वक्त आ गया है जब पुरूषों की गिद्ध निगाहें और जानवरों जैसे सलूक करने वाली मानसिकता से महिलाओं को खतरा है।

वक्त चाहे पुराना रहा हो, या 21वीं सदी का। असल में आज भी पुरूषों के अहंकारी युद्ध में सबसे अधिक महिलाएं भी प्रभावित होती है। पहले इतर लगाकर महिला घर से निकल जाए, तो उसे सजा देने के लिए उसके साथ जानवरों की भांति बलात्कार किए जाते थें, जिससे मर्द उनकी सुगंध से बहक न जाए। महिला तेज आवाज में बात कर दे तो मर्द उसकी कोमल आवाज में बहक न जाए। महिला का बदन तो दूर, चेहरा भी न दिख पाए वर्ना वो वहशी मर्द कहीं यौनी प्रेम में न पड़ जाए। इसलिए महिलाओं को घरों से निकलने, किसी से बात करने की पाबंदी होती थी। महिलाओं का सिर्फ एक ही काम होता था, खाना बनाना, झाडू-बर्तन और थके मर्द को यौन सुख देना।

पहले युद्ध के दौरान महिलाओं को सैनिकों के लिए परोसा जाता था। वे सैनिक उन्हे किसी जानवर की तरह नोच-नोच कर बलात्कार, सामूहिक बलात्कार करते थें। दुनिया में हुए कितने ही युद्ध इस बात के गवाह हैं। जो देश, राज्य युद्ध हार जाता था, उस जगह के महिलाओं को मारते कम ही थें, उनसे पहले बलात्कार करते थें, फिर चाहे वह किसी भी उम्र की क्यों न हो। बच्चियों को तक नहीं बख्शा जाता था। इसके बाद जब जाहिल मर्द की हवस समाप्त हो जाती थी, तो वह दूसरे को परोस देता था। इसके बाद महिला को मार दिया जाता था।



 


बात अफगानिस्तान की करें तो वहां महिलाओं को अफगानी लोग तहखानों में इस तरह छिपा रहें हैं, जैसे उन्होने काई गलती की हो। लेकिन असल में वे उन महिलाओं को उन तालिबानी रूपी दरिंदों से बचाने की कोशिश कर रहें हैं, जो महिलाओं, लड़कियों और बच्चियों को अपने हवश का शिकार बनाकर मौत के घाट उतार देते हैं। कहने को तो यह 21वीं सदी है, लेकिन अफगान में हो रहे अत्याचारों से ऐसा ही लग रहा है, जैसे पुराना वक्त फिर लौट आया हो।

जींस, टॉप स्कर्ट तो दूर अब सिर्फ नीले बुर्के से पूरा तन ढंका जा रहा है। बाजारों में उन पोस्टरों को फाड़ा जा रहा है, जिसमें महिलाओं की प्रचार वाली फोटो हैं। अफगान के लिए यह नया नहीं है, नब्बे के दशक में भी अफगानिस्तान ने यह सब बहुत झेला है, तालिबानों ने हजारों महिलाओं से रेप किए, उन्हे मार दिया।

लेकिन जब अमेरिकी सेना के जूतों की चहलकदमी सुनाई देने लगी, जब महिलाओं ने खुद को सुरक्षित महसूस किया। घरों से बाहर निकलीं, नौकरी के साथ-साथ मॉडलिंग, एक्टिंग, खेल आदि में ख्याति प्राप्त की। लेकिन अब उनके लिए वह नब्बे का दशक फिर वापस आ गया है।

अफगानिस्तान के काबुल के बाजारों में जहां महिलाओं खुशगप्पियां होती थीं, अब वहां कबूतर फड़फड़ाते हैं, गोलियों की आवाज गूंज रही है। महिलाएं इस डर से बाहर नहीं निकल सकती कि कहीं तालिबानी उन्हे उठा न ले जाएं।

रौंदी गई तो सिर्फ औरतें

युद्ध चाहे ब्रिटेन, रूस, चीन या पाकिस्तान का हो, लेकिन रौंदी तो सबसे अधिक औरते ही गई हैं। अमेरिका की ही बात करें तो वियतनाम युद्ध के दौरान जैसे सेक्स इंडस्ट्री खुल गई हो। या तो वियतनामी औरते अमेरिकी सैनिकों को अपने मन से अपनी देह सौंप दें या फिर उनके हवस का शिकार हो जाएं। हजारों कम उम्र की लड़कियों को हार्मोन्स के इंजेक्शन दिए गए, जिससे वे अमेरिकी सैनिकों को उनके होम वाली फीलिंग दे सके। दोनो ही स्थिति में औरतों को अपने शरीर के आत्मा भी गवाई है। शायद ये वहशीपना उनकी संस्कृति और संस्कार में ही मौजूद रहा हो।

वियतनाम युद्ध खत्म हुआ, अमेरिकी सेना वापस लौट गई लेकिन कुछ ही महीनों में 50 हजार से अधिक बच्चे पैदा हुए, जो वियतनामी-अमेरिकी मूल के थें, उन्हे जीवन की गंदगी के रूप में जाना जाने लगा।

खैर एक बार फिर अफगानिस्तान के हालातों ने पुरानी यादे ताजा कर दी। शांति और अफगानियों की सुरक्षा की बात करने वाले तालिबानियों से अच्छे काम की उम्मीद तो शायद ही कोई कर सकता है। बस दुःख इस बात का है, कि टूटती इंसानियत और मरती मानवता को देखकर खुद को माईबाप कहने वाले देश तक मूकदर्शक बने हुए हैं। कुछ तो तालिबान का खुला समर्थन भी कर रहे हैं।

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