First Widow Marriage In India: 165 साल पहले आज ही के दिन देश में पहला विधवा विवाह हुआ था

Frist Widow Marriage In India: ईश्वरचंद्र विद्यासागर ना होते तो देश से यह कुप्रथा शायद ही कभी ख़त्म होती

Update: 2021-12-07 08:09 GMT

आज से 165 साल पहले आधुनिक भारत में पहला विधवा विवाह हुआ था, इससे पहले तक अगर किसी औरत का पति स्वर्ग सिधार जाता था वो उस महिला को पूरे जीवन सफ़ेद साडी में, बाल मुंडवाए हुए अकेले तन्हाई में काटना पड़ता था। समाज में विधवा महिलाओं के लिए एक दया की भावना तो थी लेकिन उनके दोबरा हाथ पीले करने की कोई सोचता तक नहीं था, सामाजिक कार्यक्रमों जैसे शादी-ब्याह, बरहों या किसी भी ख़ुशी के अवसर में विधवा महिला को शामिल नहीं किया जाता था। अगर किसी महिला का पति कम उम्र में भी मर जाता तो उस कम उम्र की पत्नी को मरते दम तक विधवा बन कर ही रहना होता था। लेकिन ईश्वर चंद्र विद्या सागर की पहल से हमारे समाज से इस कुप्रथा को समाप्त कर दिया गया। 

ईश्वर चंद्र विद्यासागर की कोशिश के कारण ही 26 जुलाई 1856 को हिंदू विधवा पुर्नविवाह कानून 1856" बनाया गया . इसके बाद हिंदू विधवाओं की फिर से शादी को कानूनी जामा पहना दिया गया. ये कानून का मसौदा खुद 'लार्ड डलहौजी' ने तैयार किया था तो इसे पास किया 'लार्ड कैनिंग' ने. हालांकि इसके मार्ग में बहुत सी बाधाएं आईं. इससे पहले जो बड़ा समाज सुधार कानून पास हुआ था, वो था सतीप्रथा का बंदीकरण था। 

जिसने शादी की उन्हें समाज बाहर निकाल देता था 

इस कानून के बनने के दो दशक पहले भी 'दक्षिणारंजन मुखोपाध्याय बर्दवान की रानी 'और 'राजा तेजचंद्र की विधवा वसंता कुमारी' से शादी रचा चुके थे लेकिन उसे समाज ने स्वीकार नहीं किया गया था, क्योंकि तब तक ऐसा कानून नहीं बना था. ये शादी इसलिए भी खास थी कि मुखोपाध्याय ब्राह्मण थे और उन्होंने अपनी जाति से परे जाकर शादी की थी. तब इस शादी के गवाह कलकत्ता पुलिस मजिस्ट्रेट खुद बने थे. लेकिन इससे कलकत्ता और बंगाल में इतनी नाराजगी फैली कि नवदंपति को वहां से बाहर जाना पड़ा और लखनऊ में जाकर शरण लेनी पड़ी.

जो अपनी विधवा बेटी की शादी कराता उसे समाज का विरोध झेलना पड़ता था 

इससे पहले जब भी किसी अभिभावक ने अपनी छोटी विधवा बेटियों की फिर से शादी करने की करता उन्हें इसका तगड़ा विरोध झेलना पड़ता था . उस वक़्त  बंगाल में लड़कियों की शादी बहुत कम उम्र में लगभग 08-10 के बीच हो जाती थी. कई बार लड़कियों की शादी 60-70 साल के पुरुषों से होती थी. जो ज्यादा जी नहीं पाते थे. उनकी मृत्यु के बाद कम उम्र की इन विधवा लड़कियों की हालत बहुत दयनीय हो जाती थी. समाज आमतौर पर उनसे अमानवीय व्यवहार करता था.

फिर विद्यासागर ने उठाया बीड़ा 

ऐसे में विद्यासागर ने बीड़ा उठा लिया कि वो विधवाओं के पुनर्विवाह को कानून के दायरे में लाएंगे . उन्होंने इसके लिए शास्त्रों का वृहद अध्ययन किया कि क्या प्राचीन काल में ऐसा हुआ है या हिंदू शास्त्रों में ऐसा कोई उल्लेख आय़ा है. उन्होंने संस्कृत कॉलेज में इन ग्रंथों को पढ़ने और मनवांछित बात तलाशने के लिए काफी समय लगाया. आखिरकार वो उन्हें मिल गया. 'पाराशर' संहिता में उन्हें वो मिला, जो वो तलाश रहे थे. यानि विधवाओं का विवाह शास्त्र सम्मत था.

हालांकि इसका हिंदू समाज से भारी विरोध हुआ, लेकिन आखिरकार बिल पास हो ही गया. लेकिन कानून बन जाने के बाद भी विद्यासागर का काम खत्म नहीं हुआ था. उनका मानना था कि जब तक कि इस तरह की शादी शुरू नहीं हो जाती, तब तक ऐसे कानून बना लेने का कोई मतलब नहीं है. तब विद्या सागर ने अपने सहयोगी 'विद्यारत्न की शादी एक 10 साल की विधवा 'कालीमती' से करवाने की बात कही। विद्यारत्न एक संस्कृत कॉलेज में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के सहयोगी थे। 

पहले कानूनी विधवा विवाह का खूब विरोध हुआ 

विद्यारत्न की उम्र  24 साल थी, वह परगना में रहते थे. जबकि वधू कलामती देवी एक बालिका विधवा थी, जो बर्दवान के पालासदंगा गांव की रहने वाली थी. यह इतिहास में पहली कानूनी विधवा शादी थी। शादी की तारीख पहले 27 नवंबर 1856 तय की गई लेकिन विद्यारत्न सामाजिक भय के चलते पैर पीछे खींचने लगे थे. इस मामले में श्रीचंद्र की मां लक्ष्मीमणि देवी दृढ थीं कि उन्हें बेटे की शादी विधवा बालिका से ही करनी थी. क्योंकि वो खुद विधवा थीं और वह कम उम्र की विधवाओं की पीड़ा को अच्छे से समझती थीं.

वर श्रीचंद्र के डर को काफी हद तक उनके दोस्तों ने भी दूर किया. खासकर विद्यासागर ने उन्हें बहुत संबल दिया. जब ये बात कलकत्ता और बंगाल में पता लगनी शुरू हुई तो इसका तीखा विरोध शुरू हो गया. तब राज कृष्ण बंदोपाध्याय सामने आए, जिन्होंने शादी का पूरा इंतजाम अपने घर में करने की घोषणा की. विद्यासागर ने वधू को खुद अपने हाथ से बुनी साड़ी और गहने उपहार में दिए और शादी के अन्य खर्चों का वहन भी खुद ही किया. बाद में विद्यासागर ने कई और ऐसी शादियों में खुद खर्च का वहन किया. इसके चलते उन पर काफी कर्ज भी हो गया. पहली विधवा शादी होने के बाद बंगाल में हूगली और मिदिनापुर में ऐसी ही शादियां हुईं. हालांकि ये बहुत मुश्किल होता था. लेकिन धीरे धीरे इसने जोर पकड़ लिया. 

सबको जीने का बराबर अधिकार है 

हिन्दू धर्म में ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता कि विधवा महिला या विधुर पुरुष दोबरा शादी नहीं  कर सकते। बल्कि 'पराशर' संहिता में विधवा विवाह पर सहमति जताई गई है। सब को अपनी ज़िन्दगी खुशी से जीने का पूरा अधिकार है। अगर किसी महिला का पति दुनिया छोड़ चूका है तो इसमें महिला की क्या ग़लती है। समाज विधवा महिला को किसी डायन या अछूत जैसे व्यव्हार करता है। उन्हें ख़ुशी के आयोजनों से दूर रखता है, अगर ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने इस कुप्रथा के खिलाफ आवाज ना उठाई होती तो शायद आज भी महिलाओं को वैसी ही प्रताड़ना सहनी पड़ती 

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