32 साल बाद घाटी में कश्मीरी पंडितों की वापसी! नए मकान बन रहें हैं, पंडितों की मांग- 'सुरक्षा सुनिश्चित करे सरकार'
कश्मीर (Kashmir) मौसम की तरह रंग बदलता है। शांत दिखने वाली घाटी (Kashmir Valley) में हालात कब खराब हो जाएं, कोई नहीं जानता।
कश्मीर (Kashmir) मौसम की तरह रंग बदलता है। शांत दिखने वाली घाटी (Kashmir Valley) में हालात कब खराब हो जाएं, कोई नहीं जानता। इन सबके बीच कश्मीरियत के किस्से पूरी घाटी में बिखरे पड़े हैं। आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित दक्षिणी कश्मीर समेत घाटी के 100 से अधिक गांवों में करीब 900 कश्मीरी पंडित परिवार आज भी रहते हैं। ये ऐसे परिवार हैं, जो 90 के दशक में आतंक के सबसे बुरे दौर में भी यहां डटे रहे। देश के प्रमुख अखबार Dainik Bhaskar ने श्रीनगर, पुलवामा, शोपियां, अनंतनाग समेत एक दर्जन से अधिक गांवों में इन कश्मीरी पंडितों से मुलाकात इ कर उनके मौजूदा हालात जाने।
अनंतनाग के दूरदराज मट्टन इलाके में खाली पड़े दर्जनों वीरान मकान कश्मीरी पंडितों के पलायन का दर्द बयां कर रहे हैं। दो से पांच मंजिला हवेलियां उनके सामाजिक रुतबे की गवाह हैं। यहां एक नया घर लगभग तैयार है। बाउंड्री वॉल बन रही है।
पड़ोसी ने बताया कि यह पंडित जी का घर है, जो छह महीने पहले ही लौटे हैं। पड़ोसी उन्हें काका जी कहते हैं। इस सवाल पर कि आतंकवाद के खतरे और धमकियों के बावजूद घाटी में क्यों लोटे? काका जी कहते हैं- जन्मभूमि छोड़कर कहां जाएंगे? सरकारी मुलाजिम थे, तो दूसरे राज्यों में रहे। अब रिटायरमेंट के बाद यहीं आ गए हैं। लौटने वाले हम अकेले नहीं हैं। हर साल एक-दो परिवार लौट रहे हैं। यहां तो मुस्लिम पड़ोसी ही हमारी ताकत हैं। घर बनाने वालों से लेकर सुख-दुःख में साथ खड़े होने वाले सब यही पड़ोसी हैं। इसी बस्ती में चार-पाच कश्मीरी पंडितों के परिवार ऐसे हैं, जो 1990 के खतरनाक दौर में भी कहीं नहीं गए इन्हीं परिवारों में सरकारी नौकरी करने वाले एक शख्स कहते हैं कि 90 के दशक में में 8-9 साल का था। हालात बेहद झवने थे लोग घर छोड़कर जा रहे थे, लेकिन हमारे बुजुर्गों ने यहीं रहने का फैसला किया। यही पड़ोसी वक्त बेवक्त हमारे काम आते हैं।
उन्होंने बताया कि मैं पिछले साल श्रीनगर में पिता जी का इलाज करवा रहा था। पैसों की जरूरत पड़ी तो वहीं परिजन का इलाज करा रहे सोपोर के एक मुस्लिम शख्स ने 50 हजार रुपए मेरे सामने रख दिए। हालांकि, मुझे जरूरत नहीं पड़ी। दो महीने इलाज के बाद भी पिता जी नहीं बच सके पिता की अंतिम यात्रा में सोपोर के उसी शख्स ने मेरी मदद की। पलायन कर चुके कुछ कश्मीरी पंडित अपने घरों को देखने आते रहते है। उनमें से कई परिवार लौटना भी चाहते हैं। वे बताते हैं कि हमले की खबरें आने से बेचैनी तो होती है, लेकिन अगर हालात सुधरते रहे तो लौटने का मन बना रहें हैं। पंडित बस इतना चाहते हैं कि यहां लौटने के बाद उनकी हिफाजत सुनिश्चित हो।
रातों-रात हवेली से टेंट में पहुंचीं, डर ऐसा कि बिंदी तक नहीं लगाई
पुलवामा के गांव की तंग गलियों से गुजरते हुए हम कश्मीरी पंडितों की बस्ती पहुंचे तो खंडहर बने दर्जनों घर दिखे। इसी बस्ती में सड़क के सामने एक घर में हमारी मुलाकात बिंदु (परिवर्तित नाम) से हुई, जिनके पति दुकान चलाते हैं। अगल-बगल कश्मीरी पंड़ितों के खाली मकान हैं।
उन्होंने बताया, उनका मायका 20 किमी दूर बुची गांव में है। दादा दीवान और पिता जमींदार थे। आतंकवाद के काले दौर में हर तरफ तबाही थी। एक शाम हथियारबंद लोगों ने पड़ोसियों से ऐसा सुलूक किया, हमारा सब टूट गया। रातों-रात पूरा परिवार आलीशान कोठी से निकलकर जम्मू के शरणार्थी टेंट में पहुंच गया। तीन साल टिनशेड में रहे। वहीं पढ़ाई की शादी के बाद में यहां आई तो बहुत डर लगता था। घर से बाहर नहीं निकलती थी बिंदी-सिंदूर तक नहीं लगाती थी। हालात सुधरने में काफी वक्त लग गया है। घर छोड़ने के बाद जम्मू के कैंप में बहुत कुछ झेला। हम दो बहनों और एक भाई ने टेंट में रहकर पढ़ाई की। भाई एयरफोर्स में है और बहन को रिहैबिलिटेशन प्रोग्राम में टीचर की नौकरी मिली है। वह घाटी के रिहेबिलिटेशन सेंटर में ही रहती हैं बिंदू रोते हुए बताती हैं कि हमारी तकलीफों का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता।
सौ. दैनिक भास्कर