देश का एक ऐसा गोपनीय रेजिमेंट, जो है बेहद खतरनाक, सेना नहीं, सीधे प्रधानमंत्री को करती है रिपोर्ट
नई दिल्ली. देश में सेना के कई रेजिमेंट हैं. सभी एक से बढ़कर एक और बेहद ख़ास. पर एक रेजिमेंट ऐसा भी है जिसकी कोई भी जानकारी किसी को नहीं होती. सेना के इस रेजिमेंट का नाम है 'टूटू रेजिमेंट'. टूटू बेहद खतरनाक और गोपनीय रेजिमेंट है. इसके मिशन की जानकारी सेना को भी नहीं होती. ख़ास बात यह है की ये सीधे रॉ-आईबी के जरिए भारत के प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है.
टूटू रेजिमेंट की स्थापना 1962 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने की थी. इसे बेहद गोपनीय रखा जाता है. ये वही समय था जब भारत और चीन के बीच युद्ध हो रहा था. तत्कालीन आईबी चीफ भोला नाथ मलिक के सुझाव पर तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने टूटू रेजीमेंट बनाने का फैसला लिया था.
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टूटू ट्रेनिंग और मिशन की जानकारी प्रधानमंत्री और आईबी- रॉ के अलावा किसी को नहीं होती. इस रेजिमेंट के सदस्य बेहद सफाई से अपने मिशन को अंजाम दे देते हैं. किसी को न सबूत मिलता है और न ही कानों कान कोई खबर.
इस रेजीमेंट को बनाने का मकसद ऐसे लड़ाकों को तैयार करना था जो चीन की सीमा में घुसकर, लद्दाख की कठिन भौगोलिक स्थितियों में भी लड़ सकें. इस काम के लिए तिब्बत से शरणार्थी बनकर आए युवाओं से बेहतर कौन हो सकता था. ये तिब्बती नौजवान उस क्षेत्र से परिचित थे, वहां के इलाकों से वाकिफ थे.
जिस चढ़ाई पर लोगों का पैदल चलते हुए दम फूलने लगता है, ये लोग वही दौड़ते-खेलते हुए बड़े हुए थे. इसलिए तिब्बती नौजवानों को भर्ती कर एक फौज तैयार की गई. भारतीय सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल सुजान सिंह को इस रेजीमेंट का पहला आईजी नियुक्त किया गया.
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सुजान सिंह दूसरे विश्व युद्ध में 22वीं माउंटेन रेजीमेंट की कमान संभाल चुके थे. इसलिए नई बनी रेजीमेंट को ‘इस्टैब्लिशमेंट 22’ या टूटू रेजीमेंट भी कहा जाने लगा. इस रेजिमेंट में पहले तिब्बती नौजवानों को ही शामिल किया जाता था. लेकिन अब इसमें गोरखा कमांडो के जवानों को भी शामिल किया जाने लगा.
अमेरिकन ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए ने किया प्रशिक्षित
शुरुआती दौर पर इस रेजिमेंट को अमेरिकन खुफिया एजेंसी सीआईए ने प्रशिक्षित किया था. इस रेजिमेंट के जवानों को अमेरिकी आर्मी की विशेष टुकड़ी ‘ग्रीन बेरेट’ की तर्ज़ पर ट्रेनिंग दी गई. इतना ही नहीं, टूटू रेजिमेंट को एम-1, एम-2 और एम-3 जैसे हथियार भी अमेरिका की तरफ से ही दिए गए.
इस रेजीमेंट के जवानों की अभी भर्ती भी पूरी नहीं हुई थी कि नवंबर 1962 में चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी, लेकिन इसके बाद भी टूटू रेजीमेंट को भंग नहीं किया गया. बल्कि इसकी ट्रेनिंग इस सोच के साथ बरकरार रखी गई कि भविष्य में अगर कभी चीन से युद्ध होता है तो यह रेजीमेंट हमारा सबसे कारगर हथियार साबित होगी.
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टूटू रेजीमेंट के जवानों को विशेष तौर से गुरिल्ला युद्ध में ट्रेंड किया जाता है. इन्हें रॉक क्लाइंबिंग और पैरा जंपिंग की स्पेशल ट्रेनिंग दी जाती है और बेहद कठिन परिस्थितियों में भी जीवित रहने के गुर सिखाए जाते हैं.
नहीं मिलता कोई सम्मान
इस रेजिमेंट में भर्ती होना बड़े ही फक्र की बात मानी जाती है. परन्तु इसमें एक सबसे बड़ा दर्द ये भी है की इस रेजिमेंट के सदस्यों को किसी भी तरह का सम्मान कभी भी नहीं मिल पाता. इस रेजिमेंट के जवान की गुमनामी की जिंदगी के साथ इनकी शहादत भी गुमनामी में तब्दील हो जाती है.
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इनके गोपनीय मिशन और काम करने के तरीके के चलते इनकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती और इसी के चलते अन्य सैनिकों की तरह ये शहादत का सम्मान नहीं पातें, जबकि यकीन मानिए इनकी शहादत देश की सबसे बड़ी शहादतों में से एक होती है. इनकी गतिविधियां कभी भी पब्लिक नहीं की जाती है.
यही वजह है कि 1971 में शहीद हुए टूटू के जवानों को न तो कोई मेडल मिला और न ही कोई पहचान मिली. जिस तरह से रॉ के लिए काम करने वाले देश के कई जासूसों की कुर्बानियां अक्सर गुमनाम जाती हैं, वैसे ही टूटू के जवानों के शहादत को पहचान नहीं मिल सका.
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बीते कुछ सालों में इतना फर्क जरूर आया है कि टूटू रेजीमेंट के जवानों को अब भारतीय सेना के जवानों जितना ही वेतन मिलने लगा है. दिल्ली हाई कोर्ट ने कुछ साल पहले कहा था, ‘ये जवान न तो भारतीय सेना का हिस्सा हैं और न ही भारतीय नागरिक. लेकिन, इसके बावजूद भी ये भारत की सीमाओं की रक्षा के लिए हमारे जवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे हैं.’
टूटू रेजीमेंट में आज कितने जवान हैं, कितने अफसर हैं, इनकी बेसिक और एडवांस ट्रेनिंग कैसे होती है और ये काम कैसे करते हैं, यह आज भी एक रहस्य ही हैं. टूटू रेजीमेंट का उद्देश्य आज भी वही है जो इसकी स्थापना के वक्त था, चीन से युद्ध की स्थिति में भारतीय सैन्य ताकत का सबसे मजबूत हथियार साबित होना.
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